Thursday, September 23, 2010

कांटो का बिछौना....

आगोश-ऐ-तन्हाई में सोना चाहता हूँ,
जीतकर भी सब खोना चाहता हूँ,
दम घुट रहा है सिसकियो में,
जी भर के रोना चाहता हूँ,
ख्वाहिशें नहीं जन्नत में आशियाने की,
मैं तो उनके दिल में एक कोना चाहता हूँ,
बने जो कल दरख़्त-ऐ-मोहोब्बत,
बीज वो दिलों में बोना चाहता हूँ,
भटका के साहिल से जो ले आई है भंवर तक,
खुस उस कश्ती को मै डुबोना चाहता हूँ,
रात करवटों में गुज़रे वो फूलों की सेज क्या,
नींद आ जाये वो कांटो का बिछौना चाहता हूँ....

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